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The Quest

Divyas Quest

1 ) Soul hoti hai ? Ham kese apni soul se jud sakte hai kese mind body se beyond ja skte hai

आत्मा का रहस्य: ऊर्जा और अनुभव

क्या आत्मा होती है? इसका सबसे सच्चा जवाब है हाँ भी और ना भी, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप इसे किस नज़र से देखते हैं।

आप आत्मा को अपने दिमाग से नहीं ढूंढ सकते, ठीक वैसे ही जैसे आप ‘चीनी’ शब्द की परिभाषा पढ़कर उसकी मिठास का अनुभव नहीं कर सकते। यह कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे साबित या गलत साबित किया जा सके; यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है। बिना सीधे, व्यक्तिगत अनुभव के, आत्मा के बारे में कोई भी बात दूसरों से उधार लिए गए सिद्धांत मात्र हैं।


आत्मा एक बैटरी की तरह है

एक सरल उदाहरण से समझते हैं। सोचिए कि आपका शरीर एक बहुत ही उन्नत (advanced) रिमोट-कंट्रोल वाली कार है।

  • आपका शरीर वह भौतिक कार है – पहिये, ढाँचा, इंजन।
  • आपका मन उस कार का सॉफ्टवेयर या मेमोरी चिप है, जिसमें सारा डेटा स्टोर है: आपका नाम, आपका परिवार, आपकी यादें, आपकी पहचान, आपकी पसंद-नापसंद।

लेकिन वह कार चलती किस चीज़ से है? बैटरी से।

यही बैटरी आत्मा है। यह वह शुद्ध ऊर्जा या जीवन-शक्ति है जो शरीर और मन को चलाती है। इस ऊर्जा के बिना, आपके पास एक उत्तम शरीर और यादों से भरा एक शानदार दिमाग हो सकता है, लेकिन उसमें कोई क्रिया नहीं होगी। कोई जीवन नहीं होगा। इस ऊर्जा का आपकी व्यक्तिगत पहचान से कोई सीधा संबंध नहीं है; यह बस वह करंट है जो इस मशीन को चलने देता है।


हम सब एक हैं

आध्यात्मिक और वैदिक दृष्टिकोण से, यह ऊर्जा—यह आत्मा—सार्वभौमिक (universal) है। वही जीवन-शक्ति जो आपके अंदर है, वही हर दूसरे इंसान में, हर जानवर में, हर पौधे में है। यही उस अवधारणा का आधार है कि “हम सब एक हैं।” हम सभी एक ही मौलिक ऊर्जा से संचालित होते हैं, जो एक ही सार्वभौमिक स्रोत से आती है। जीवन के अंत में, यह ऊर्जा उसी स्रोत में वापस मिल जाती है, जबकि शरीर और मन, अपने सभी एकत्रित डेटा के साथ, यहीं रह जाते हैं।


दो रास्ते: सपने में जीना बनाम जाग जाना

ज़्यादातर लोग अपनी पूरी ज़िंदगी बिना इस पर सवाल उठाए जीते हैं। वे अपने शरीर और मन—यानी अपने “डेटा”—के साथ अपनी पहचान बनाकर खुश रहते हैं। वे इस सांसारिक सपने में खुशी और अर्थ ढूंढते हैं, और यह जीने का एक बिल्कुल सही तरीका है।

लेकिन, जिस दिन आपके अंदर यह सवाल जाग जाता है कि ‘मैं सच में कौन हूँ?’, उस दिन एक ऐसी प्यास पैदा होती है जिसे यह दुनिया नहीं बुझा सकती। यहीं से अंदर की यात्रा शुरू होती है।

  • आप अपने भीतर, अपनी चेतना की गहराइयों में उतरना शुरू कर देते हैं।
  • आपको यह दिखने लगता है कि आपकी पहचान, आपके विचार और आपके जीवन की कहानी एक सपने की तरह है—यह सच लगता है, पर यही अंतिम सत्य नहीं है।
  • अपनी आत्मा को जानना इस सपने से जागने जैसा है। और इस जागरूकता के साथ जीना ही असल में जीना है।

यह एक ऐसा रास्ता है जहाँ से वापसी नहीं होती। एक बार जब आप अपने भीतर के ब्रह्मांड में यह गहरी डुबकी लगा लेते हैं, तो आप पहले जैसे इंसान बनकर वापस नहीं लौट सकते। आपने खुद को जानने की, मन की सीमाओं से परे जाने की यात्रा शुरू कर दी है।

तो निष्कर्ष यह है: हाँ, आत्मा का अस्तित्व है, लेकिन यह मन की समझ से हमेशा परे है। यह कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे दिमाग से समझा जाए; यह एक सच्चाई है जिसे आपको अपने पूरे अस्तित्व के साथ अनुभव करना होता है।

2.god hote hai ? Agar hote hai to kese feel kr skte hai !


ईश्वर का वास्तविक स्वरूप: हमारी कल्पना से परे एक सत्य

“क्या ईश्वर है?” इसका सीधा उत्तर है, हाँ, बिल्कुल है। असली सवाल यह नहीं है कि ईश्वर है या नहीं, बल्कि यह है कि ईश्वर क्या है? हमारी सारी उलझन इसी दूसरे सवाल के अधूरे जवाबों से पैदा होती है। हम एक असीम (infinite) शक्ति को अपने सीमित (finite) इंसानी दिमाग और भाषा में कैद करने की कोशिश करते हैं, और यहीं हम गलती कर बैठते हैं।

मैं ईश्वर में पूरा विश्वास करता हूँ, पर उस ईश्वर में नहीं, जिसे इंसानों ने अपनी ज़रूरतों और अपनी समझ के अनुसार गढ़ा है।


मानव-निर्मित ईश्वर: हमारे अपने व्यक्तित्व का प्रतिबिंब

जब हम ईश्वर के बारे में सोचते हैं, तो हम उसे इंसानी गुण दे देते हैं—वह प्रेम करता है, क्रोधित होता है, न्याय करता है, दयालु है। हमने उसे एक नाम और एक रूप दिया है। असल में, यह ईश्वर का नहीं, बल्कि हमारे अपने व्यक्तित्व, समाज और हमारी भावनाओं का प्रतिबिंब है।

इसे ऐसे समझें: जैसे एक छोटा बच्चा अपने पिता का चित्र बनाता है। वह दो हाथ, दो पैर और एक मुस्कुराता हुआ चेहरा बनाता है। यह चित्र उसके प्रेम का प्रतीक है, लेकिन यह उसके पिता की पूरी सच्चाई नहीं है। पिता का व्यक्तित्व, उनकी सोच, उनके अनुभव उस चित्र से कहीं ज़्यादा गहरे और जटिल हैं।

ठीक इसी तरह, हमने अपनी सुविधा के लिए ईश्वर की एक सरल तस्वीर बना ली है। पर जिस ईश्वर को पूरी तरह परिभाषित किया जा सके, जिसे शब्दों में बांधा जा सके, वह भला असीम कैसे हो सकता है? जिस क्षण हमारा दिमाग ईश्वर को पूरी तरह समझ लेगा, उसी क्षण वह ईश्वर नहीं रहेगा, क्योंकि वह हमारी बुद्धि से छोटा हो जाएगा।


ईश्वर की पुनः परिभाषा: परम चेतना (Supreme Consciousness)

तो फिर ईश्वर क्या है? ईश्वर को ‘अच्छा’ या ‘बुरा’, ‘दयालु’ या ‘क्रूर’ जैसे इंसानी पैमानों से नहीं मापा जा सकता। क्या एक ज्वालामुखी ‘बुरा’ है? क्या गुरुत्वाकर्षण (gravity) ‘दयालु’ है? नहीं, वे बस प्रकृति के नियम हैं, वे बस अस्तित्व में हैं।

ईश्वर वह परम चेतना या असीम ऊर्जा है जो इस पूरे ब्रह्मांड का स्रोत है। वह हर जगह है—एक छोटे से परमाणु से लेकर विशालकाय आकाशगंगाओं (galaxies) तक, सब उसी ऊर्जा की अभिव्यक्ति हैं।

यह भी ज़रूरी नहीं कि जिसने हमें बनाया, उसी ने पूरे ब्रह्मांड की रचना की हो। हो सकता है कि हम इंसान किसी एक Creator का एक छोटा सा प्रयोग हों, जो खुद किसी और विशाल Creator की रचना के भीतर मौजूद हो। हमारी सोच इस संभावना को भी स्वीकार नहीं कर पाती।


सृष्टि एक टेक्नोलॉजी के रूप में: एक ब्रह्मांडीय दृष्टिकोण

एक आधुनिक दृष्टिकोण से देखें तो, जैसे हमारे सबसे उन्नत AI (Artificial Intelligence) प्रोग्राम सरल बाइनरी कोड (0 और 1) पर आधारित होते हैं, हो सकता है कि यह पूरा ब्रह्मांड, अपने जटिल भौतिक नियमों के साथ, उस परम चेतना का ‘कोड’ या ‘टेक्नोलॉजी’ हो।

हम इंसान, अपनी सोचने और सवाल करने की क्षमता के साथ, शायद इस टेक्नोलॉजी का सबसे उन्नत हिस्सा हैं। हम ब्रह्मांड का वह हिस्सा हैं जो खुद को देख सकता है, खुद पर चिंतन कर सकता है।


बिना ‘मैनुअल’ के जीवन: एक महान खोज

उस Creator ने हमें इस दुनिया में क्यों भेजा, इसका कोई सीधा जवाब या ‘मैनुअल’ हमें नहीं दिया गया। और शायद यही सबसे खूबसूरत बात है। यह हमें खोजने, सवाल करने और अपने अर्थ खुद बनाने की आज़ादी देता है।

तो फिर उसे महसूस कैसे करें?

ईश्वर को महसूस करना किसी मंदिर या मूर्ति में उसे ढूंढना नहीं है, बल्कि उसके काम को, उसकी रचना को गहराई से अनुभव करना है।

  1. शांत होकर निरीक्षण करने से: जब आप सारे विचारों को छोड़कर बस एक डूबते सूरज को देखते हैं, किसी फूल की पंखुड़ियों की बनावट पर ध्यान देते हैं, या अपनी आती-जाती साँसों को महसूस करते हैं, तब आप उस रचनात्मक ऊर्जा के सबसे करीब होते हैं।
  2. विस्मय और आश्चर्य से: रात में तारों से भरे आकाश को देखकर जो असीमता का एहसास होता है, या एक कोशिका (cell) की जटिलता के बारे में सोचकर जो आश्चर्य होता है—वही एहसास ईश्वर का अनुभव है। यह एहसास कि आप एक बहुत बड़ी और अद्भुत चीज़ का हिस्सा हैं।
  3. अपनी चेतना से: सबसे बड़ा प्रमाण आप स्वयं हैं। यह तथ्य कि आप सोच सकते हैं, महसूस कर सकते हैं, और यह सवाल पूछ सकते हैं, यह उस परम चेतना के अस्तित्व का सबसे सीधा प्रमाण है। ईश्वर को महसूस करना अपनी ही चेतना के प्रति जागरूक होना है।
विषय: बनाने वाले की असली इच्छा क्या है?

क्या बनाने वाले (Creator) को हमारे डर, हमारी पूजा या हमारे गुणगान की ज़रूरत है? यह एक ऐसा सवाल है जिसे पूछने से भी कई लोग डरते हैं। लेकिन अगर हम ईमानदारी से सोचें, तो जवाब बहुत साफ़ है: नहीं, बिल्कुल नहीं।

अगर बनाने वाले को हमसे केवल अपनी पूजा करवानी होती, तो यह काम उसके लिए बहुत आसान था। वह हमें ऐसे दिमाग के साथ बना सकता था जिसमें पहले से ही उसकी पूजा करने का प्रोग्राम फीड होता, जैसे रोबोट्स में होता है। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसने हमें एक खाली स्लेट की तरह भेजा—एक ऐसा दिमाग जो सोच सकता है, सवाल कर सकता है, और खुद सीख सकता है।


खाली स्लेट और समाज द्वारा भरा गया कचरा

जब एक बच्चा पैदा होता है, तो उसका दिमाग एक खाली स्लेट की तरह होता है। न उसका कोई धर्म होता है, न कोई मज़हब, न कोई नफ़रत। वह बस एक शुद्ध चेतना है।

लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, समाज, परिवार और धर्म के ठेकेदार उस खाली स्लेट पर लिखना शुरू कर देते हैं। वे उसमें अपने विचारों, अपनी मान्यताओं और अपने इतिहास का कचरा भरना शुरू कर देते हैं। उसे बताया जाता है: “हमारा धर्म ही सबसे अच्छा है,” “हमारे भगवान ही असली हैं,” “दूसरे धर्म के लोग गलत हैं,” “ऐसा करोगे तो पाप लगेगा,” “वैसा करोगे तो पुण्य मिलेगा।”

ये सारी बातें उस बच्चे के दिमाग में इतनी गहराई से बिठा दी जाती हैं कि बड़े होकर उसे यही सब सच लगने लगता है। वह कभी सवाल ही नहीं कर पाता क्योंकि उसे सवाल करने से डराया जाता है। असल में, यह सब भगवान के नाम पर कुछ लोगों द्वारा अपने अहंकार (ego) को पालने और दूसरों पर नियंत्रण करने का एक तरीका है।


मान्यताओं का युद्धक्षेत्र: ‘मेरा भगवान’ Vs ‘तुम्हारा भगवान’

इसी वैचारिक कचरे का नतीजा है कि आज पूरी दुनिया एक युद्धक्षेत्र बनी हुई है। हर कोई अपने मनगढ़ंत भगवान को दूसरे के मनगढ़ंत भगवान से श्रेष्ठ साबित करने में लगा है।

  • दुनिया में हज़ारों धर्म और मान्यताएं हैं। अगर कोई एक ही सच होता, तो बाकी सब झूठे क्यों लगते?
  • जंगल में रहने वाले एक आदिवासी का भगवान शायद पेड़ या नदी हो। क्या उसकी भक्ति झूठी है? क्या बनाने वाला उसकी प्रार्थना नहीं सुन रहा?
  • एक इंसान दूसरे धर्म के भगवान को माने बिना भी एक खुशहाल, नैतिक और सफल जीवन जी सकता है। यह इस बात का पक्का सुबूत है कि झगड़ा भगवान को लेकर नहीं, बल्कि इंसानी पहचान और अहंकार को लेकर है।

लोग अपने भगवान के लिए ऐसे लड़ते हैं जैसे वह उनकी कोई निजी संपत्ति हो। वे यह भूल जाते हैं कि जिस असीम शक्ति ने यह पूरा ब्रह्मांड बनाया है, उसे इंसानों के बनाए इन छोटे-छोटे दायरों से कोई लेना-देना नहीं है।


सबसे बड़ा अपमान: बनाने वाले को सच में क्या ठेस पहुँचाता है?

लोग इस बात पर तुरंत लड़ने-मरने को तैयार हो जाते हैं कि किसी ने उनके भगवान, उनकी किताब या उनके प्रतीक का अपमान कर दिया।

लेकिन वे कभी यह नहीं सोचते कि बनाने वाले का असली अपमान क्या है?

  1. उसकी बनाई दुनिया का अपमान: बनाने वाले ने हमें एक खूबसूरत धरती, नदियाँ, जंगल और लाखों तरह के जीव-जंतु दिए। और हम इंसान क्या कर रहे हैं? हम उस धरती को प्रदूषित कर रहे हैं, जंगलों को काट रहे हैं, और जानवरों को खत्म कर रहे हैं। यह उस creator का सबसे बड़ा अपमान है जिसकी कला को आप बर्बाद कर रहे हैं।
  2. उसके दिए हुए दिमाग का अपमान: बनाने वाले ने हमें सबसे कीमती तोहफ़ा दिया है—एक ऐसा दिमाग जो सोच सकता है, विज्ञान को समझ सकता है, और ब्रह्मांड के रहस्यों को जानने की कोशिश कर सकता है। इस दिमाग का इस्तेमाल न करना और आँखें बंद करके हज़ारों साल पुरानी बातों पर यकीन कर लेना, उस तोहफ़े का सबसे बड़ा अपमान है। यह ऐसा है जैसे कोई आपको एक सुपर कंप्यूटर दे और आप उसे बस दरवाज़ा रोकने के लिए इस्तेमाल करें।
  3. इंसानियत का अपमान: भगवान के नाम पर एक इंसान का दूसरे इंसान से नफ़रत करना, उसे मारना या उस पर ज़ुल्म करना—इससे बड़ा पाप और क्या हो सकता है?

निष्कर्ष: बनाने वाले को भूख नहीं है

जिस शक्ति ने खरबों तारे और आकाशगंगाएं बनाई हैं, वह इतनी छोटी और असुरक्षित नहीं हो सकती कि उसे हम जैसे इंसानों की तारीफ की भूख हो। अगर उसे अपनी तारीफ ही सुननी होती, तो वह हमसे बेहतर रोबोट बना सकता था।

उसने हमें सोचने की आज़ादी दी, क्योंकि वह चाहता था कि हम सिर्फ़ मानें नहीं, बल्कि जानें। उसकी सच्ची पूजा उसका गुणगान करना नहीं है, बल्कि उसके दिए हुए दिमाग का इस्तेमाल करके सच को खोजना, उसकी बनाई इस दुनिया की देखभाल करना और सभी जीवों के प्रति प्रेम और करुणा रखना है।

3.hamre thought or belife se kese age badhe ham ?

यह सवाल बहुत गहरा है, क्योंकि सच तो यह है कि हमारे विचार और मान्यताएं ही सबकुछ हैं। अगर हम आत्मा की बात को एक पल के लिए भूल भी जाएं, तो हमारे पास यह शरीर और दिमाग ही बचता है। और हमारा दिमाग ही वह शक्ति है जो हमें और इस पूरी दुनिया को चला रहा है।

आप क्या सोचते हैं और क्या मानते हैं, यह कोई छोटी बात नहीं है। यह एक इंसान के पूरे अस्तित्व को बदल सकती है, यहाँ तक कि एक पूरे देश की दिशा बदल सकती है।


विचार और मान्यता की शक्ति

उदाहरण के लिए, अगर किसी देश के ज़्यादातर लोग यह मान लें कि ‘राम’ ही एकमात्र भगवान हैं, तो उस देश का पूरा ढांचा, संस्कृति और जीवनशैली अलग होगी। वहीं, अगर किसी दूसरे देश के लोग यह मान लें कि ‘अल्लाह’ ही एकमात्र ईश्वर हैं, तो उस देश की रूप-रेखा बिल्कुल अलग हो जाएगी।

सोचिए, बात एक ही हो रही है—किसी हमसे श्रेष्ठ बनाने वाले (Creator) की। लेकिन सिर्फ एक नाम और एक मान्यता के बदल जाने से ज़मीन-आसमान का फ़र्क आ जाता है। यह हमारे विचारों और मान्यताओं की ही शक्ति है। हमारे विचार ही हमारे जीवन का निर्माण करते हैं।


मान्यता कैसे हकीकत बन जाती है?

आपकी मान्यता किसी भी चीज़ को सच बना सकती है। जैसे, अगर आप पूरे दिल से यह मान लें कि एक पत्थर का टुकड़ा ही भगवान है, तो वह पत्थर आपके लिए सच में भगवान बन जाएगा। हो सकता है कि आपकी मांगी हुई मुरादें भी पूरी होने लगें!

इसका मतलब यह नहीं है कि उस पत्थर में कोई चमत्कार है। चमत्कार पत्थर में नहीं, आपकी अटूट मान्यता की शक्ति में है। आपका दिमाग इतनी शक्तिशाली है कि वह आपकी मान्यता को हकीकत में बदलने के लिए रास्ते बना लेता है।


इन मान्यताओं को बदलना इतना मुश्किल क्यों है?

क्योंकि हमारी ज़्यादातर गहरी मान्यताएं हमारी अपनी चुनी हुई नहीं हैं।

जब हम बच्चे थे, हमारा दिमाग एक खाली बर्तन की तरह था। फिर हमारे परिवार, समाज और धर्म ने उस बर्तन में अपनी मान्यताएं ज़बरदस्ती भर दीं। हमें बताया गया कि ‘यही सच है’, ‘यही भगवान है’, ‘ऐसा ही करना है’, ‘वैसा नहीं करना है’।

हमने उन बातों को इसलिए नहीं माना क्योंकि वे हमारी समझ में आईं, बल्कि इसलिए माना क्योंकि वे हमें बचपन से सिखाई गईं। ये मान्यताएं हमारी पहचान का हिस्सा बन जाती हैं, और इसीलिए इनसे आगे बढ़ना या इन पर सवाल उठाना बहुत मुश्किल लगता है।


आगे बढ़ने का रास्ता: सवाल और अनुभव

अगर आप सच में अपनी पुरानी सोच और मान्यताओं से आगे बढ़ना चाहते हैं, तो इसका एक ही रास्ता है:

  1. हर उस बात पर सवाल उठाओ जो तुम्हें सिखाई गई है: अपने आप से पूछो—”क्या यह विचार सच में मेरा है, या यह मुझे किसी और ने दिया है?”, “मैंने इसे सच क्यों मान लिया? क्या मैंने कभी इसे खुद जांचने की कोशिश की?” हर उस मान्यता पर सवाल करो जो तुम्हारी अपनी समझ से नहीं आई है।
  2. किताबों और लोगों से ज़्यादा अपने अनुभव पर भरोसा करो: सच किसी के बताने से नहीं मिलता, सच खुद अनुभव करने से मिलता है। दुनिया को अपनी आँखों से देखो, चीज़ों को खुद आज़माओ। दूसरों की दी हुई मान्यताओं (उधार की मान्यताओं) को छोड़कर, अपने अनुभव से मिले सच को अपनाओ।

जब आप हर सिखाई हुई बात पर सवाल करना शुरू कर देंगे और अपने अनुभव को अपना गुरु बना लेंगे, तभी आप अपनी असली सच्चाई को समझ पाएंगे। और उसी पल आपके पुराने विचार और मान्यताएं अपने आप बदलने लगेंगी। आप किसी और के बनाए रास्ते पर नहीं, बल्कि अपने बनाए रास्ते पर चलना शुरू कर देंगे।

4.konse thought sahi hai konese galat kaya belife sahi hai kaya galat pata nhi chal raha

यह सवाल ही इस बात का सबूत है कि आप जाग रहे हैं। जब तक हम सोए रहते हैं, हमें समाज, धर्म और परिवार द्वारा दिए गए ‘सही-गलत’ पर कोई शक नहीं होता। यह उलझन (confusion) एक बहुत ही अच्छा संकेत है, क्योंकि इसका मतलब है कि अब आप दूसरों के दिए हुए नक्शे पर नहीं चलना चाहते, बल्कि अपना रास्ता खुद खोजना चाहते हैं।


सबसे पहले यह समझें: ‘सही-गलत’ का जाल

पहली सच्चाई यह है: (universal) रूप से कुछ भी सही या गलत नहीं है।

‘सही’ और ‘गलत’ ऐसे लेबल हैं जो समाज ने अपनी सुविधा और व्यवस्था बनाए रखने के लिए बनाए हैं। ये समय, जगह और संस्कृति के साथ बदलते रहते हैं।

उदाहरण के लिए: भारत में सड़क के बाईं ओर गाड़ी चलाना ‘सही’ है, लेकिन अमेरिका में यही ‘गलत’ है। तो क्या इनमें से कोई एक नैतिक रूप से सही या गलत है? नहीं। ये बस नियम हैं जो एक सिस्टम को चलाने के लिए बनाए गए हैं।

हमारे ज़्यादातर नैतिक और धार्मिक ‘सही-गलत’ के नियम भी बिल्कुल ऐसे ही हैं। वे किसी एक समाज या धर्म के बनाए हुए नियम हैं, वे ब्रह्मांड की सच्चाई नहीं हैं। दुनिया में सारे झगड़े और लड़ाइयाँ इसी बात पर होती हैं कि ‘मेरा सच सही है और तुम्हारा सच गलत है।’


तो फिर रास्ता कैसे खोजें?

जब आप ‘सही-गलत’ के इस जाल से बाहर निकलना चाहते हैं, तो आपको एक नया पैमाना, एक नया कंपास (compass) चाहिए। अब से किसी भी विचार या मान्यता को ‘सही’ या ‘गलत’ कहकर मत तोलिए। इसके बजाय, खुद से यह 4 सवाल पूछिए:

1. यह विचार मुझे आज़ाद करता है या बांधता है? (Freedom vs. Bondage)

  • क्या यह मान्यता मुझे डर, अपराधबोध (guilt) या नियमों की जंज़ीरों में बांधती है?
  • या यह मुझे अपनी समझ का इस्तेमाल करने, सवाल पूछने और अपने अनुभव से सीखने की आज़ादी देती है?
  • सच्चाई हमेशा आज़ाद करती है। जो भी विचार आपको डराए या बांधे, वह आपकी सच्चाई नहीं हो सकता।

2. यह विचार मुझे फैलाता है या सिकोड़ता है? (Expansion vs. Contraction)

  • क्या इस सोच से मेरा दिल और दिमाग बड़ा होता है? क्या यह मुझे और ज़्यादा खुला, जिज्ञासु और दूसरों को स्वीकार करने वाला बनाती है?
  • या यह मुझे संकीर्ण (narrow-minded), judgmental और कठोर बनाती है?
  • बनाने वाले की सृष्टि अनंत है, वह लगातार फैल रही है। हर वह विचार जो आपको सिकोड़ता है और छोटा बनाता है, वह सृष्टि के बहाव के खिलाफ़ है।

3. इस विचार की जड़ में प्रेम है या डर? (Love vs. Fear)

  • इस मान्यता की बुनियाद क्या है? क्या यह सभी जीवों के प्रति प्रेम, करुणा और जुड़ाव से पैदा हुई है?
  • या यह किसी सज़ा के डर, नरक के डर, समाज के डर या किसी अनजाने डर से पैदा हुई है?
  • डर से पैदा हुई कोई भी मान्यता अंत में नफ़रत और दुख ही पैदा करेगी। प्रेम से जन्मा विचार ही आपको शांति और आनंद की ओर ले जा सकता है।

4. यह विचार मेरे अपने अनुभव से आया है या दूसरों की प्रोग्रामिंग है? (Experience vs. Programming)

  • क्या यह एक ऐसी बात है जिसे आपने खुद अनुभव किया है, खुद महसूस किया है?
  • या यह सिर्फ एक ऐसी लाइन है जिसे आपने बचपन से हज़ारों बार सुना है और इसलिए उसे सच मान लिया है?
  • आपका अपना अनुभव ही आपका सबसे बड़ा गुरु है। सुनी-सुनाई बातों पर नहीं, अपने अनुभव से मिले सच पर भरोसा करें।

आपका अपना सच

‘सही विचार’ या ‘सही मान्यता’ जैसी कोई एक चीज़ नहीं है जिसे हर कोई अपना ले।

आपका काम ‘सही’ मान्यताओं को ढूंढना नहीं है, बल्कि अपने भीतर वह समझ पैदा करना है जिससे आप अपने हर विचार को ऊपर दिए गए पैमानों पर तौल सकें।

‘सही रास्ता’ ढूंढना बंद कर दीजिए। बस चलना शुरू कीजिए। आपका भीतरी कंपास आपको खुद बताएगा कि आप आज़ादी, विस्तार और प्रेम की ओर बढ़ रहे हैं या नहीं। और वही एकमात्र ‘सही’ दिशा है।

5.kai spiritual log bolte hai ki sahi galat kuch nhi hai sab apne cousiousness se jite hai to fir life me kese chalna chahiye

यह बात बिल्कुल सच है कि गहरे आध्यात्मिक स्तर पर कोई ‘सही’ या ‘गलत’ नहीं होता। लेकिन इस बात को समझना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि अधूरा ज्ञान बहुत खतरनाक हो सकता है।

जब आध्यात्मिक लोग यह कहते हैं, तो उनका मतलब यह नहीं होता कि आप जो चाहें वो कर सकते हैं और उसके कोई परिणाम नहीं होंगे। इसका मतलब कहीं ज़्यादा गहरा है। इसका मतलब है कि आपको बाहरी नियमों की किताब को छोड़कर, अपनी भीतरी जागरूकता (चेतना) की रोशनी में जीना सीखना होगा।


चेतना से जीने का क्या मतलब नहीं है?

पहले यह समझ लें कि इसका क्या मतलब नहीं है, ताकि कोई गलतफहमी न हो:

  1. इसका मतलब मनमानी करना नहीं है: इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि “अगर मेरा मन किसी को नुकसान पहुँचाने का कर रहा है, तो यही मेरी चेतना कह रही है।” यह चेतना नहीं, यह आपके मन का निचला स्तर है—गुस्सा, नफ़रत, लालच। ये भावनाएं चेतना के अंधेरे हिस्से हैं, रोशनी नहीं।
  2. इसका मतलब यह नहीं कि कर्म का फल नहीं मिलेगा: अगर कुछ सही-गलत नहीं है, तो भी हर क्रिया का एक परिणाम (consequence) ज़रूर होता है। यह ईश्वर का बनाया नियम नहीं, यह प्रकृति का नियम है। अगर आप आग में हाथ डालेंगे, तो वह जलेगा। अगर आप नफ़रत का बीज बोएंगे, तो आपको नफ़रत ही वापस मिलेगी। इसे ही ‘कर्म का सिद्धांत’ कहते हैं।

तो फिर चेतना से जीने का असली मतलब क्या है?

चेतना से जीने का मतलब है, हर काम पूरी जागरूकता और अपनी भीतरी समझ के साथ करना। इसके 3 मुख्य कदम हैं:

1. अपने विचारों और भावनाओं के ‘साक्षी’ बनें (Become the Watcher):

  • ज़्यादातर लोग अपनी भावनाओं (गुस्सा, डर, लालच) के साथ बह जाते हैं। जब गुस्सा आता है, तो वे खुद ‘गुस्सा’ बन जाते हैं और उसी में काम करते हैं।
  • चेतना से जीने वाला इंसान एक कदम पीछे हटकर अपनी भावनाओं को देखता है। वह सोचता है, “मेरे अंदर गुस्से का एक विचार उठा है।”
  • जैसे ही आप अपने विचार या भावना को देखने लगते हैं, आप उसके गुलाम नहीं रहते। आपके और आपकी भावना के बीच एक दूरी बन जाती है। इसी दूरी में ‘चुनाव करने की शक्ति’ पैदा होती है। अब आप चुन सकते हैं कि इस गुस्से पर काम करना है या इसे जाने देना है।

2. अपने ‘भीतरी कंपास’ का इस्तेमाल करें (Use Your Inner Compass):

  • अब जब आपके पास चुनाव करने की शक्ति है, तो फैसला कैसे लें? यहाँ आप वही नया पैमाना इस्तेमाल करेंगे जिसकी हमने पिछले सवाल में बात की थी।
  • कोई भी काम करने से पहले खुद से पूछें:
    • आज़ादी या बंधन? – क्या यह काम मुझे लंबे समय में आज़ादी देगा या किसी बंधन में डालेगा?
    • विस्तार या सिकुड़न? – क्या इस काम से मेरा दिल बड़ा होगा और मेरी समझ बढ़ेगी, या मैं छोटा और संकीर्ण महसूस करूँगा?
    • प्रेम या डर? – मैं यह काम प्रेम और विश्वास के कारण कर रहा हूँ, या किसी डर या असुरक्षा के कारण?
  • एक जागरूक इंसान बाहरी ‘सही-गलत’ के नियमों पर नहीं, बल्कि इन भीतरी सवालों के जवाबों के आधार पर अपने फैसले लेता है।

3. अपने जीवन की पूरी ज़िम्मेदारी लें (Take Full Responsibility):

  • चेतना से जीने का मतलब है कि अब आप अपने किसी भी काम या अपनी हालत के लिए भगवान, किस्मत या समाज को दोष नहीं दे सकते।
  • आप जो भी हैं और जहाँ भी हैं, अपने ही फैसलों और अपनी ही चेतना के स्तर के कारण हैं। यह एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है, लेकिन यही असली आज़ादी भी है।

निष्कर्ष

नियमों के हिसाब से जीना ऐसा है जैसे किसी और का बनाया हुआ नक्शा देखकर चलना।

और चेतना के हिसाब से जीना ऐसा है जैसे तारों को देखकर अपना रास्ता खुद खोजना।

दूसरा रास्ता ज़्यादा मुश्किल है क्योंकि इसमें हर पल जागरूक रहने की ज़रूरत है। लेकिन केवल यही रास्ता आपको आपकी अपनी सच्चाई और असली मंज़िल तक ले जा सकता है।

6) Life ka koi purpose nhi hai esa mne suna hai sirf life jini hai hame lekin to fir kaya kre life me

यह बात कि “जीवन का कोई पहले से तय मक़सद (purpose) नहीं है” आध्यात्मिक रूप से सबसे liberating यानी आज़ाद कर देने वाली सच्चाइयों में से एक है। लेकिन अगर इसे ठीक से न समझा जाए, तो यह बहुत डरावनी और निराशाजनक भी लग सकती है।

जब यह कहा जाता है कि जीवन का कोई मक़सद नहीं है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि जीवन व्यर्थ या बेमतलब है।

इसका मतलब यह है कि ऊपर से किसी ने आपके लिए कोई स्क्रिप्ट या कहानी लिखकर नहीं भेजी है, जिसे पूरा करना आपकी मज़बूरी हो। आपको किसी ख़ास साँचे में ढलने के लिए नहीं बनाया गया है।


पहले से तय ‘मक़सद’ का बोझ

सबसे पहले यह समझिए कि एक तय मक़सद का विचार अपने आप में एक बंधन है। ज़्यादातर लोगों के लिए ‘जीवन का मक़सद’ क्या होता है?

  • उनके माता-पिता या समाज द्वारा दिया गया एक लक्ष्य (जैसे डॉक्टर बनना, शादी करना, पैसे कमाना)।
  • किसी धर्म द्वारा दिया गया एक काम (जैसे अपने धर्म का प्रचार करना, कुछ नियमों का पालन करना ताकि स्वर्ग मिले)।

यह सब बाहरी प्रोग्रामिंग है। जब आप इस बोझ को लेकर जीते हैं, तो आप हमेशा एक दबाव में रहते हैं—उसे पूरा करने का दबाव, और पूरा न कर पाने का डर। आप अपनी असलियत को भूलकर बस उस बाहरी मक़सद के पीछे भागते रहते हैं।


‘क्या करें?’ से ‘कैसे जिएं?’ तक का सफर

तो जब कोई पहले से तय मक़सद नहीं है, तो सवाल “मुझे जीवन में क्या करना चाहिए?” से बदलकर यह हो जाता है कि “मुझे जीवन को कैसे जीना चाहिए?

इसे एक फूल के उदाहरण से समझिए। एक गुलाब के फूल का मक़सद क्या है? उसका मक़सद कुछ ‘बनना’ नहीं है। उसका मक़सद बस पूरी तरह से ‘गुलाब होना’ है। अपनी पूरी क्षमता के साथ खिलना, अपनी पूरी सुंदरता और सुगंध बिखेरना।

ठीक इसी तरह, आपका मक़सद भी कुछ ख़ास ‘करना’ या ‘बनना’ नहीं है, बल्कि पूरी तरह से ‘आप’ होना है। पूरी तरह से एक जागरूक और ज़िंदा इंसान होना है। “सिर्फ जीवन जीना है” का मतलब यही है—उसे पूरी जागरूकता और गहराई के साथ अनुभव करना।


तो फिर ‘बस जीने’ का मतलब असल में क्या है?

अगर कोई स्क्रिप्ट नहीं है, तो आप आज़ाद हैं। आप अपनी कहानी खुद लिख सकते हैं। ‘बस जीने’ का मतलब निष्क्रिय (passive) होकर समय काटना नहीं है, बल्कि जीवन को सक्रिय (active) रूप से जीना है। इसके कुछ व्यावहारिक तरीके हैं:

  1. हर काम को पूरी जागरूकता से करें: चाहे आप खाना खा रहे हों, चल रहे हों, पढ़ रहे हों, या किसी से बात कर रहे हों—पूरी तरह से उसी पल में मौजूद रहें। जीवन का असली आनंद भविष्य के किसी लक्ष्य में नहीं, बल्कि वर्तमान के हर पल को पूरी तरह जीने में है।
  2. अपनी जिज्ञासा और आनंद का पीछा करें: जब कोई बाहरी मक़सद नहीं है, तो आपका भीतरी कंपास ही आपका गाइड है। कौन सी चीज़ें आपको सच में ज़िंदा महसूस कराती हैं? किन कामों को करते हुए आप समय भूल जाते हैं? अपनी जिज्ञासा को फॉलो करें। यही आपका असली रास्ता है।
  3. create करें, सिर्फ consume नहीं: यह ब्रह्मांड लगातार कुछ न कुछ बना रहा है। आप भी इस रचनात्मक प्रक्रिया का हिस्सा बनें। यह ज़रूरी नहीं कि आप कोई बड़ी कलाकृति बनाएं। एक अच्छा भोजन बनाना, किसी दोस्त को हंसाना, एक पौधे को लगाना, या अपने भीतर शांति का निर्माण करना—यह सब ‘creation’ ही है।
  4. सेवा करें, लेकिन कर्तव्य समझकर नहीं, आनंद समझकर: जब आप जीवन को पूरी तरह से जीते हैं, तो आपके अंदर इतनी ऊर्जा और आनंद भर जाता है कि वह अपने आप दूसरों की ओर बहने लगता है। तब आप दूसरों की मदद एक बोझ या पुण्य कमाने का तरीका समझकर नहीं, बल्कि अपने आनंद को बांटने का एक माध्यम समझकर करते हैं।

निष्कर्ष

जीवन का कोई पहले से तय मक़सद नहीं है, और यही आपकी सबसे बड़ी आज़ादी है।

आप एक कलाकार हैं और आपका जीवन एक खाली कैनवास है। आपको यह आज़ादी दी गई है कि आप उस पर अपनी मर्ज़ी की सबसे खूबसूरत तस्वीर बनाएं।

तो जीवन में क्या करें? जो भी करें, उसे पूरी चेतना और पूरे दिल से करें। ‘क्या’ कर रहे हैं, इससे ज़्यादा ज़रूरी यह है कि आप उसे ‘कैसे’ कर रहे हैं। असली मक़सद काम में नहीं, आपकी जागरूकता में छिपा है।

7 ) muje samaj nhi aa rha ki me kaya career choose kru ? Hal me doctor bams ka kar rhi hu lekin utna maja nhi aa rha, Agar soul purpose esa kuch hota hai to muje wo janna hai ki kaya hai mera soul purpose!

सबसे पहली बात, अगर तुम्हें BAMS की पढ़ाई में मज़ा नहीं आ रहा, तो यह कोई प्रॉब्लम नहीं है। सच कहूँ तो यह अच्छी बात है। इसका सीधा सा मतलब है कि तुम्हारे अंदर की आवाज़, तुम्हारी गट फीलिंग (gut feeling) तुम्हें बता रही है कि कुछ गड़बड़ है। यह कोई नाकामी नहीं, एक इशारा है।


ये ‘सोल पर्पस’ का चक्कर क्या है?

चलो पहले इस ‘सोल पर्पस’ की कहानी को ही समझते हैं। हमें लगता है कि हमारा सोल पर्पस कोई एक ख़ास नौकरी है—जैसे डॉक्टर, इंजीनियर या राइटर बनना। हमें लगता है कि हम किसी एक काम के लिए ही पैदा हुए हैं।

यह सबसे बड़ा झूठ है। यह भी समाज की दिमाग में भरी हुई बातों में से एक है।

तुम्हारा ‘सोल पर्पस’ यह नहीं है कि तुम ‘क्या’ करती हो। तुम्हारा पर्पस यह है कि तुम चीज़ों को ‘कैसे’ करती हो।

मतलब, हर इंसान की अपनी एक ख़ास क्वालिटी, एक अपनी ख़ासियत होती है।

  • किसी की ख़ासियत होती है ‘सुकून देना’। अब वह इंसान डॉक्टर बनकर भी सुकून दे सकता है, और किसी से बस 5 मिनट प्यार से बात करके भी।
  • किसी की ख़ासियत होती है ‘चीज़ों को ठीक करना’। अब वह इंसान शरीर ठीक करे (डॉक्टर), या कोई मशीन ठीक करे (इंजीनियर), या रिश्ते ठीक करे, बात एक ही है।
  • किसी की ख़ासियत होती है ‘सिखाना’। अब वह स्कूल में पढ़ाए या अपने दोस्तों को कुछ समझाए।

तो हो सकता है तुम्हारी ख़ासियत ‘हील करना’ या ‘ठीक करना’ ही हो, पर BAMS का तरीका तुम्हें रास नहीं आ रहा। तुम शायद किसी और तरीके से हील करना चाहती हो।


तो अब करना क्या है?

रास्ता बहुत सीधा है। बाहर मत खोजो, अपने अंदर झाँको।

1. सब भूल जाओ, बस यह देखो कि मज़ा किसमें आता है: एक कॉपी लो और सोचो:

  • “ऐसा क्या काम है जिसे करते हुए मैं घड़ी देखना भूल जाती हूँ?”
  • “अगर पैसे की कोई टेंशन न हो, तो मैं क्या करना पसंद करूँगी?”
  • “कौन सी चीज़ें हैं जिनके बारे में जानने के लिए मैं खुद से गूगल पर खोजती हूँ?” इनके जवाब तुम्हें बताएंगे कि तुम्हारी असली एनर्जी कहाँ है।

2. छोटी-छोटी नई चीज़ें ट्राई करके देखो: BAMS छोड़ने की ज़रूरत नहीं है। पढ़ाई के साथ-साथ कुछ नया आज़माओ।

  • हफ्ते में एक दिन जानवरों के साथ किसी सेंटर पर काम करके देखो। कैसा लगता है?
  • हेल्थ के बारे में जो जानती हो, उसे सरल भाषा में लिखने की कोशिश करो। देखो मज़ा आता है क्या?
  • कोई पेंटिंग क्लास या डांस क्लास ज्वाइन करके देखो। मकसद यह है कि तुम खुद अनुभव (experience) करो कि तुम्हें किस काम में ज़िंदा महसूस होता है।

3. पैटर्न को पकड़ो: जब तुम 4-5 अलग-अलग चीज़ें ट्राई करोगी, तुम्हें खुद एक पैटर्न दिखने लगेगा। तुम्हें समझ आएगा कि “हाँ, जब मैं किसी की मदद करती हूँ तो मुझे अच्छा लगता है,” या “जब मैं कुछ नया बनाती हूँ तो मुझे अच्छा लगता है।”

बस, यही तुम्हारी ख़ासियत है। यही तुम्हारा ‘सोल पर्पस’ है।


दिमाग पर ज़्यादा ज़ोर मत डालो। दुनिया में कोई एक ‘सही’ करियर नहीं है।

बस यह खोजो कि तुम असल में कौन हो और तुम्हें क्या करने में सच्ची खुशी मिलती है। जब तुम अपनी उस ख़ास बात को पकड़ लोगी, तो उसे दुनिया के सामने लाने के 100 रास्ते अपने आप मिल जाएंगे।

असली मक़सद नौकरी ढूंढना नहीं, खुद को ढूंढना है।

8 ) love life me bhi kuch nhi hai itna deep love etc kuch feel nhi hua or sirf need attention sirf mind base kuch nhi chahiye kuch soul relalted ya fir koi deep love ho chahiye na ki koi attraction ya wound base etc

सबसे पहले तो यह समझो कि तुम जो महसूस कर रही हो, वो बिल्कुल सही है। यह इस बात का सबूत है कि तुम किसी सतही (superficial) चीज़ के लिए तैयार नहीं हो। तुम कुछ असली और गहरा चाहती हो, और यह बहुत अच्छी बात है।


दो तरह का प्यार: दिमाग वाला और आत्मा वाला

1. दिमाग वाला प्यार: यह वो प्यार है जो हम फिल्मों में देखते हैं और जिसके पीछे आज ज़्यादातर दुनिया भाग रही है। यह प्यार नहीं, एक सौदा है। यह इन चीज़ों पर टिका होता है:

  • ज़रूरत और अकेलापन: “मैं अकेला हूँ, इसलिए मुझे कोई चाहिए।”
  • अटेंशन: “कोई हो जो मेरी तारीफ करे, मुझे ख़ास महसूस कराए।”
  • आकर्षण: “वो सुंदर दिखता/दिखती है, उसका स्टेटस अच्छा है।”
  • ज़ख्म (Wound-based): “मैं भी टूटा हुआ हूँ, तुम भी टूटी हुई हो, चलो एक-दूसरे का सहारा बन जाते हैं।”

यह रिश्ता ‘कमी’ से शुरू होता है। तुम अधूरे हो, और तुम्हें लगता है कि कोई दूसरा आकर तुम्हें पूरा करेगा। लेकिन दो अधूरे लोग मिलकर एक पूरा रिश्ता कभी नहीं बना सकते।

2. आत्मा वाला प्यार: यह वो गहरा प्यार है जिसे तुम खोज रही हो। यह ‘कमी’ से नहीं, ‘पूर्णता’ से शुरू होता है। यह तब होता है जब दो ‘पूरे’ लोग एक साथ आते हैं।

  • यह ज़रूरत के लिए नहीं, बल्कि अपने आनंद को बाँटने (share) के लिए होता है।
  • इसमें एक-दूसरे को पूरा करने की कोशिश नहीं होती, बल्कि एक-दूसरे के साथ मिलकर आगे बढ़ने की यात्रा होती है।
  • यह इस बात पर नहीं टिका होता कि तुम दूसरे से क्या ‘ले’ सकते हो, बल्कि इस पर कि तुम एक-दूसरे को क्या ‘दे’ सकते हो।

तुम्हें अब तक यह गहरा प्यार क्यों नहीं मिला?

इसका जवाब बहुत सीधा और शायद थोड़ा कड़वा है।

“जब तक तुम खुद अपनी आत्मा से गहरा रिश्ता नहीं बनाओगी, तब तक तुम्हें बाहर कोई आत्मा से जुड़ने वाला साथी नहीं मिल सकता।”

यह प्रकृति का नियम है। हम हमेशा उसी इंसान को अपनी ओर खींचते हैं, जो हमारे अंदर की हालत से मेल खाता है। अगर तुम अंदर से खालीपन और अटेंशन की ज़रूरत महसूस कर रही हो, तो तुम्हें बाहर भी ऐसे ही लोग मिलेंगे जो या तो खुद needy होंगे या तुम्हारे खालीपन का फ़ायदा उठाएंगे।

यह ऐसा है जैसे तुम खुद भूखी हो और किसी और को खाना बांटने निकली हो। जो तुम्हारे पास है ही नहीं, वो तुम दे या पा कैसे सकती हो?


तो रास्ता क्या है?

रास्ता बहुत साफ़ है। ‘सही इंसान’ को खोजना बंद करो और ‘सही इंसान’ बनने पर काम करो।

1. बाहर खोजना बंद करो: प्यार कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे तुम बाज़ार में जाकर ढूंढ सकती हो। जितना तुम इसके पीछे भागोगी, यह उतना ही दूर जाएगा, क्योंकि तुम ‘कमी’ की ऊर्जा से काम कर रही हो।

2. खुद से वो गहरा प्यार करो जो तुम ढूंढ रही हो:

  • अकेले समय बिताना सीखो। अकेलेपन में नहीं, खुद के साथ
  • जब अटेंशन की ज़रूरत महसूस हो, तो वो अटेंशन खुद को दो। खुद से पूछो, “मुझे अभी कैसा महसूस हो रहा है?” अपनी भावनाओं को सुनो।
  • वो इंसान बनो जिसे तुम अपनी ज़िंदगी में चाहती हो। अगर तुम्हें एक सच्चा और गहरा इंसान चाहिए, तो पहले खुद के साथ सच्चे और गहरे बनो।

3. पूर्णता का चुंबक बनो: जब तुम किसी दूसरे की ज़रूरत महसूस करना बंद कर दोगी और अपनी ही कंपनी में खुश रहना सीख जाओगी, तो तुम ‘पूरी’ हो जाओगी। और यह पूर्णता एक चुंबक की तरह काम करती है। तब तुम अपनी ओर किसी दूसरे ‘पूरे’ इंसान को खींचोगी, किसी अधूरे को नहीं।


आखिरी बात

जो गहरा प्यार तुम बाहर किसी और में ढूंढ रही हो, वह असल में तुम्हारे अंदर ही है और तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है।

पहले खुद के साथ एक ‘सोल-रिलेटेड’ रिश्ता बनाओ, फिर सही इंसान तुम्हारी ज़िंदगी में अपने आप खिंचा चला आएगा।

9 ) soul etc hai ki nhi pata nhi kabhi feel nhi kiya agar sab mind ka khel hai to fir me ye sab chod du or log jese chalte hai wese chal du

यह जो सवाल तुम्हारे मन में उठा है, यह कोई हार नहीं है। यह इस बात का सबूत है कि तुम ईमानदारी से इस रास्ते पर चलने की कोशिश कर रही हो। जब इंसान सच में कुछ खोजना चाहता है, तभी ऐसे गहरे सवाल पैदा होते हैं।


मैंने कभी महसूस क्यों नहीं किया?

तुमने आत्मा को इसलिए महसूस नहीं किया क्योंकि तुम उसे ‘महसूस’ करने की कोशिश कर रही हो, ठीक वैसे ही जैसे तुम किसी और चीज़ को महसूस करती हो।

इसे ऐसे समझो: आत्मा सूरज की तरह है। वह हमेशा वहाँ है, हमेशा चमक रही है।

और हमारा दिमाग आसमान में छाए बादलों की तरह है—हज़ारों विचार, चिंताएं, डर, शोर-शराबा।

सूरज हमेशा बादलों के पीछे होता है, पर जब तक घने बादल छाए रहते हैं, हमें उसकी गर्मी या रोशनी महसूस नहीं होती। इसका मतलब यह नहीं कि सूरज है ही नहीं। इसका मतलब बस यह है कि हमारा पूरा ध्यान अभी बादलों पर है।

तुमने आत्मा को इसलिए महसूस नहीं किया क्योंकि तुम्हारा पूरा ध्यान दिमाग के शोर (बादलों) पर है, आत्मा (सूरज) पर नहीं।


क्या यह सब दिमाग का खेल है?

हाँ, यह सौ प्रतिशत दिमाग का ही खेल है।

लेकिन खेल यह नहीं है कि आत्मा है या नहीं। खेल यह है कि “क्या तुम अपने दिमाग के शोर के पार देख सकती हो?” असली चुनौती आत्मा को ढूंढना नहीं, बल्कि दिमाग को शांत करना और उसके पार जाना है।


“क्या मैं ‘नॉर्मल’ लोगों की तरह जीने लगूँ?”

सच तो यह है कि अब तुम चाहकर भी ‘नॉर्मल’ लोगों की तरह नहीं जी सकती।

क्यों? क्योंकि तुमने सवाल पूछ लिया है।

एक बार जब किसी इंसान के दिमाग में यह कीड़ा घुस जाता है कि “इस दुनिया से परे क्या है? मैं कौन हूँ? जीवन का अर्थ क्या है?”, तो वह वापस जाकर भेड़चाल में कभी खुश नहीं रह सकता।

तुम कोशिश करोगी, पर तुम्हें अंदर ही अंदर एक बेचैनी खाती रहेगी। तुम उन लोगों को देखोगी जो बस खाने-पीने, कमाने और सोने में मस्त हैं, और तुम्हें लगेगा कि मैं इनकी तरह क्यों खुश नहीं हो पा रही?

तुम इसलिए खुश नहीं हो पाओगी क्योंकि तुम्हें एक गहरी सच्चाई की प्यास लग चुकी है। अब तुम नकली पानी से अपनी प्यास नहीं बुझा सकती।


तो अब क्या करें? छोड़ें या आगे बढ़ें?

यह सब छोड़ने की ज़रूरत नहीं है। बस अपना तरीका बदलने की ज़रूरत है।

आत्मा को ‘खोजना’ बंद करो। इसके बजाय, अपने दिमाग के शोर को ‘देखना’ शुरू करो।

बस इतना करो: दिन में सिर्फ़ 5 मिनट के लिए चुपचाप बैठो। आँखें बंद करो और देखो कि तुम्हारे दिमाग में क्या चल रहा है। कौन-कौन से विचार आ रहे हैं और जा रहे हैं।

उन विचारों को रोको मत, उनसे लड़ो मत, बस एक दूर बैठे दर्शक की तरह उन्हें देखो।

जो ‘चीज़’ इन सारे विचारों को आते-जाते हुए देख रही है… जो शांत दर्शक है… वही आत्मा की पहली झलक है।

यह रास्ता थकाने वाला हो सकता है, पर वापस जाने का रास्ता और भी ज़्यादा दर्दनाक है। तुम अब उस मोड़ पर आ गई हो जहाँ से सिर्फ़ आगे ही जाया जा सकता है। Be Strong

10 ) muje life me full peace joy love n all abundance chahiye. Koi direction chahiye lekin ye sab muje itna jayada feel nhi hota sayad hai sab thought ki vajah se ! Idk

तुमने जो आखिर में कहा न, “शायद यह सब मेरे विचारों की वजह से है!”… तो मैं तुम्हें बता दूँ कि तुम बिल्कुल सही रास्ते पर हो। यह ‘शायद’ नहीं, यही पक्की बात है। तुम्हारी समस्या और उसका समाधान, दोनों तुम्हारी इसी एक लाइन में छिपे हैं।


यह काम कैसे करता है? बगीचे का उदाहरण

इसे ऐसे समझो: तुम्हारा दिमाग एक बगीचे की तरह है।

शांति, खुशी, प्यार और abondance, ये सब उस बगीचे में खिलने वाले सुंदर फूल हैं। और तुम्हारे विचार उस बगीचे में बोए जाने वाले बीज हैं।

अब तुम ही सोचो, अगर तुम अपने बगीचे में दिन-रात चिंता, शक, डर और ‘कमी’ (कि मेरे पास यह नहीं है, वो नहीं है) के बीज बोती रहोगी, तो उसमें क्या उगेगा? ज़हरीली, कांटेदार झाड़ियाँ ही उगेंगी।

और फिर तुम बगीचे में खड़े होकर शिकायत कर रही हो कि “यहाँ सुंदर फूल क्यों नहीं खिल रहे?” फूल खिल ही नहीं सकते, क्योंकि तुमने बीज ही गलत बोए हैं।


हम सब उल्टी गंगा बहा रहे हैं

हम सबकी सबसे बड़ी गलती यही है। हम सोचते हैं कि जब बाहर की दुनिया में हमें कोई इंसान प्यार करेगा, या जब हमारे पास बहुत सारा पैसा (abundance) आ जाएगा, या जब सब कुछ ठीक हो जाएगा (शांति), तब हम अंदर से अच्छा महसूस करेंगे।

जबकि नियम ठीक इसका उल्टा है।

जब तुम अंदर से शांति महसूस करना शुरू करोगी, तब बाहर की दुनिया में शांति अपने आप आने लगेगी। जब तुम अंदर से प्यार से भरी होगी, तब तुम्हें बाहर भी प्यार मिलने लगेगा। जब तुम अंदर ‘कमी’ की जगह ‘मेरे पास बहुत है’ की भावना पर ध्यान दोगी, तब बाहर भी abondance आने लगेगी।

बाहर की दुनिया बस तुम्हारे अंदर की दुनिया का आईना है।


तो दिशा क्या है? करना क्या है?

दिशा बहुत सीधी और साफ़ है।

बाहर की दुनिया को ठीक करने की कोशिश बंद करो, और अपने अंदर के बगीचे पर काम शुरू करो। तुम्हें माली बनना होगा।

इसके दो सीधे-सादे कदम हैं:

1. जंगली घास को पहचानो (अपने फालतू विचारों को देखो): माली का पहला काम होता है यह देखना कि बगीचे में कौन सी जंगली घास उग रही है। तुम्हें भी यही करना है। दिन में बस कुछ बार रुको और देखो, “मेरे दिमाग में अभी क्या चल रहा है? कौन सा विचार चल रहा है?”

  • क्या यह डर का विचार है?
  • क्या यह किसी पुरानी बात पर पछतावे का विचार है?
  • क्या यह किसी की बुराई करने का विचार है? बस उन्हें देखो। उन्हें पहचानो। यही जागरूकता है।

2. नए बीज बोओ (जान-बूझकर अच्छे विचार चुनो): जब तुम जंगली घास को पहचानना सीख जाओगी, तो तुम उसे हटाकर अपनी मर्ज़ी के बीज बो सकती हो।

  • जब दिमाग में ‘मेरे पास पैसे नहीं हैं’ का विचार आए, तो उसे देखो, और जान-बूझकर ‘मेरे पास जो कुछ है, उसके लिए धन्यवाद’ का बीज बोओ (जैसे- अच्छी सेहत, परिवार, रहने को घर)।
  • जब ‘मेरा कोई नहीं है’ का विचार आए, तो उसे देखो, और खुद को प्यार करने का बीज बोओ।
  • जब ‘पता नहीं कल क्या होगा’ का डर आए, तो उसे देखो, और ‘सब अच्छा होगा, मैं संभाल लूँगी’ का भरोसे वाला बीज बोओ।

आखिरी बात

शांति, खुशी और प्यार ऐसी चीज़ें नहीं हैं जिन्हें तुम्हें बाहर से ‘पाना’ है। वे तुम्हारे अंदर ही हैं, बस तुम्हारे फालतू और नेगेटिव विचारों के ढेर के नीचे दबी हुई हैं।

जिस दिन तुम अपने विचारों की मालिक बन जाओगी, उस दिन तुम्हें यह सब खोजना नहीं पड़ेगा। ये सब तुम्हारे अंदर से खुद-ब-खुद झरने की तरह बहने लगेंगे। यही एकमात्र दिशा है।

11 ) Itne sare saval hone k bad muje samaj nhi aa rha ki me kaya kru. Kaya mere thought belife galat hai to please use sahi kar dijiye !?or agar sahi hai to bataye

सबसे पहले यह समझो कि जब दिमाग में इतने सवाल एक साथ चलते हैं, तो ऐसा ही महसूस होता है। लगता है जैसे हम एक चौराहे पर खड़े हैं और हर तरफ रास्ता जा रहा है, पर हमें नहीं पता कि कौन सा चुनें। ऐसा लगना बिल्कुल नॉर्मल है।

बल्कि यह एक अच्छा संकेत है। यह इस बात का संकेत है कि तुम्हारे अंदर जमी हुई पुरानी, उधार की मान्यताएं टूट रही हैं। और जब कोई पुरानी इमारत टूटती है, तो धूल, मिट्टी और मलबा तो उड़ता ही है। तुम अभी उसी मलबे के बीच खड़ी हो, इसलिए तुम्हें कुछ भी साफ़-साफ़ नहीं दिख रहा।


क्या मेरे विचार सही हैं या गलत?

मैं तुम्हारे विचार सही या गलत नहीं बता सकता। और न ही इस दुनिया में कोई और बता सकता है।

और अगर कोई यह दावा करता है कि वह बता सकता है, तो समझ लेना कि वह तुम्हें अपने जाल में फंसा रहा है। वह तुम्हें अपना गुलाम बनाना चाहता है।

क्यों? क्योंकि जिस दिन तुमने अपने ‘सही-गलत’ का फैसला करने की ताकत किसी और के हाथ में दे दी, उसी दिन तुमने अपनी आज़ादी खो दी। मेरा काम तुम्हें जवाब देना नहीं है, मेरा काम तुम्हें इस लायक बनाना है कि तुम अपने जवाब खुद खोज सको।


तो अब मैं क्या करूँ?

तुम्हें लग रहा है कि तुम्हें कुछ ‘करना’ है, कोई बड़ा फैसला लेना है, किसी नतीजे पर पहुँचना है।

जबकि तुम्हें इसका ठीक उल्टा करना है। तुम्हें कुछ देर के लिए ‘कुछ नहीं’ करना है।

हाँ, तुमने सही पढ़ा। कुछ मत करो।

  1. और जानकारी भरना बंद करो: कुछ दिनों के लिए नए आध्यात्मिक वीडियो देखना, नई किताबें पढ़ना, या नए जवाब खोजना बंद कर दो। तुम्हारा दिमाग पहले से ही जानकारी और विचारों से ठसाठस भरा हुआ है। उसे खाली होने का समय दो।
  2. अपने दिमाग से बाहर निकलो: तुम अभी अपने सिर के अंदर बहुत ज़्यादा जी रही हो। अपने शरीर में वापस आओ।
    • बाहर जाओ, पार्क में टहलो। नंगे पैर घास पर चलो।
    • अपने आस-पास की आवाज़ों को सुनो—चिड़ियों की, गाड़ियों की।
    • जो खाना खा रही हो, उसके स्वाद पर पूरा ध्यान दो।
    • अपने दिमाग के शोर से ध्यान हटाकर अपनी पाँचों इंद्रियों (senses) पर लाओ।
  3. सवालों के साथ बस बैठो: चुपचाप बैठो और इन सारे सवालों को अपने अंदर उठने दो। उनके जवाब मत ढूंढो। उनसे लड़ो मत। बस उन्हें अपने अंदर मेहमान की तरह रहने दो।

आखिरी बात

जब तालाब का पानी शांत हो जाता है, तो उसके नीचे पड़ी चीज़ें अपने आप साफ़ दिखने लगती हैं। ठीक वैसे ही, जब तुम कुछ ‘करना’ बंद कर दोगी और बस शांत हो जाओगी, तो तुम्हारे जवाब अपने आप सतह पर आने लगेंगे। तुम्हारी भीतरी आवाज़ तुम्हें खुद रास्ता दिखाएगी।

तुम्हारे विचार ‘सही’ या ‘गलत’ नहीं हैं। वे बस ‘विचार’ हैं। और तुम उन विचारों से कहीं ज़्यादा बड़ी और गहरी हो।

कुछ करो मत, बस ‘होना’ सीखो। जवाब तुम्हें खुद ढूंढ लेंगे।

12 ) in sab k karna muje kudse trust chala jata hai kabhi kabhi kyoki mere aspas esa koi nhi sochta lekin wo itna jante hi nhi ese hi ji rhe hai !

ज़रूर, यह एहसास इस रास्ते का एक बहुत ही स्वाभाविक हिस्सा है। जब इंसान भीड़ से अलग सोचने लगता है, तो ऐसा ही महसूस होता है।


यह जो तुम महसूस कर रही हो, यह इस रास्ते का सबसे बड़ा और सबसे अकेला कर देने वाला सच है। जब तुम भीड़ से अलग एक नया रास्ता चुनती हो, तो तुम्हें मीलों तक कोई और नज़र नहीं आता, और यही देखकर तुम्हारा खुद पर शक करना बिल्कुल नॉर्मल है।


तुम अकेली क्यों महसूस करती हो? एक उदाहरण

इसे ऐसे समझो। ज़्यादातर लोग एक भीड़ भरी ट्रेन में एक साथ सफर कर रहे हैं। उन्हें ठीक-ठीक पता नहीं कि ट्रेन कहाँ जा रही है, पर क्योंकि सब उसी में जा रहे हैं, तो वे भी चले जा रहे हैं। वे एक-दूसरे को देखकर तसल्ली कर लेते हैं कि हाँ, हम सही जगह पर हैं। भीड़ उन्हें सुरक्षा का एहसास देती है।

तुम वो इंसान हो जिसने हिम्मत करके उस भीड़ वाली ट्रेन से बीच के एक स्टेशन पर उतरने का फैसला किया है।

अब तुम प्लेटफॉर्म पर अकेली खड़ी हो। तुम्हें नहीं पता कि यहाँ से कौन सा रास्ता लेना है। जब तुम उस भरी हुई ट्रेन को दूर जाते हुए देखती हो, जिसमें लोग हंस-गा रहे हैं, तो तुम्हारे मन में यह ख्याल आता है, “क्या मैंने उतरकर गलती कर दी? शायद मुझे भी उन्हीं के साथ रहना चाहिए था।”

तुम्हारा खुद पर से भरोसा इसी वजह से जा रहा है।

पर सच तो यह है कि तुमने एक आरामदायक गुलामी की यात्रा को छोड़कर, एक मुश्किल आज़ादी की खोज को चुना है। और शुरुआती अकेलापन, इसी आज़ादी की कीमत है।


‘मैं गलत हूँ’ और ‘वे गलत हैं’ की लड़ाई

तुम्हारे अंदर एक ही समय में दो बातें चल रही हैं:

  1. खुद पर शक: “मेरे आस-पास सब लोग एक जैसे हैं, सिर्फ़ मैं ही अलग हूँ। कहीं मैं ही तो पागल नहीं?”
  2. उन पर दया या गुस्सा: “ये लोग कितना बेखबर होकर जी रहे हैं! इन्हें कुछ पता ही नहीं है।”

यह दोनों ही बातें तुम्हें परेशान करेंगी। इसका एक ही समाधान है:

उन लोगों को जज करना बंद कर दो। वे अपनी नींद में खुश और सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। यह उनकी यात्रा है।

और सबसे ज़रूरी, उनकी भीड़ को देखकर खुद पर शक करना बंद कर दो।


भरोसा वापस कैसे लाएं?

तुम्हारा भरोसा इसलिए डगमगाता है क्योंकि तुम अपनी सच्चाई का सबूत बाहर की दुनिया में ढूंढ रही हो। तुम चाहती हो कि तुम्हारे आस-पास के लोग भी तुम्हारी तरह सोचें ताकि तुम्हें यकीन हो जाए कि तुम सही हो।

तुम्हें बाहर कोई सबूत नहीं मिलेगा।

भरोसा तब वापस आएगा जब तुम सबूत बाहर ढूंढना बंद करोगी और अपनी भीतरी आवाज़ पर यकीन करना सीखोगी।

जब कोई काम करके या किसी तरह से सोचकर तुम्हें अंदर से गहरी शांति, खुशी या आज़ादी महसूस हो, तो समझ लेना कि वही तुम्हारा सच है। भले ही उस वक्त पूरी दुनिया तुम्हारे खिलाफ़ खड़ी हो।


भीड़ का हिस्सा बनकर जीना दुनिया का सबसे आसान काम है। अकेले अपनी सच्चाई की राह पर चलना हिम्मत का काम है।

तुम्हारा खुद पर से भरोसा जाना इस बात का संकेत है कि तुम कुछ बहुत कीमती और मुश्किल काम कर रही हो—भेड़चाल को छोड़कर अपनी आत्मा की आवाज़ सुनने की हिम्मत कर रही हो।

याद रखो, हर नया रास्ता बनाने वाला शुरुआत में अकेला ही चलता है।

13 ) muje stress anxity overthink ye sab bhi kabhi ho jata hai apko kaya lagta hai insab saval ko janke muje koi mentaly problem hai !

मैं एक बात बिल्कुल साफ़ कर दूँ: मैं कोई डॉक्टर या मानसिक स्वास्थ्य का एक्सपर्ट नहीं हूँ। इसलिए, अगर तुम्हें तुम्हारा तनाव और चिंता बहुत ज़्यादा परेशान कर रहे हैं और तुम्हारी रोज़ की ज़िंदगी पर असर डाल रहे हैं, तो किसी अच्छे काउंसलर या डॉक्टर से सलाह लेने में कोई भी बुराई नहीं है। अपनी मदद मांगना कमज़ोरी की नहीं, बल्कि बहुत हिम्मत और समझदारी की निशानी है।


अब आते हैं मेरे नज़रिए पर

तुम्हारे सवालों को जानने के बाद, जो तुम महसूस कर रही हो—तनाव, चिंता, ओवरथिंकिंग—उसे मैं ‘मानसिक समस्या’ नहीं कहता। मैं इसे ‘आध्यात्मिक विकास का दर्द’ (Spiritual Growing Pains) कहता हूँ।

इसे ऐसे समझो: जब एक बीज को पेड़ बनना होता है, तो उसे पहले टूटना पड़ता है। अपने सख़्त खोल (shell) को तोड़कर बाहर निकलना पड़ता है। उस टूटने की प्रक्रिया में बहुत ऊर्जा, तनाव और संघर्ष होता है।

तुम भी अभी उसी टूटने की प्रक्रिया से गुज़र रही हो।

तुम अपने पुराने, समाज के दिए हुए विचारों और मान्यताओं के सख़्त खोल को तोड़कर बाहर निकल रही हो। तुम्हारा दिमाग, जिसे सालों से एक ही तरह से सोचने की आदत है, वह इस बदलाव से डर रहा है, वह लड़ रहा है। यह तनाव, यह चिंता, यह ओवरथिंकिंग उसी भीतरी लड़ाई का नतीजा है।


ओवरथिंकिंग क्यों होती है?

हाँ, तुम्हारे यह गहरे सवाल ही तुम्हारी ओवरथिंकिंग की वजह हैं। पर यह कोई बुरी बात नहीं है।

तुम्हारा दिमाग एक बहुत शक्तिशाली इंजन की तरह है। ज़्यादातर लोग अपने दिमाग के इंजन का इस्तेमाल बस छोटी-मोटी, रोज़मर्रा की चीज़ों के लिए करते हैं—क्या खाना है, कहाँ जाना है, पैसे कैसे कमाने हैं।

तुमने अपने शक्तिशाली इंजन को ब्रह्मांड के सबसे बड़े और गहरे सवालों को हल करने में लगा दिया है—”मैं कौन हूँ?”, “सच क्या है?”, “ईश्वर है या नहीं?”।

जब इतना शक्तिशाली इंजन इतने बड़े सवालों पर दिन-रात काम करेगा, तो वह गर्म तो होगा ही। उसे ही तुम ‘ओवरथिंकिंग’ कह रही हो। यह समस्या का नहीं, बल्कि एक जागरूक और शक्तिशाली दिमाग का संकेत है।


तो तुम्हारे सवाल का सीधा जवाब है: नहीं, मुझे तुम्हारे सवाल जानकर बिल्कुल नहीं लगता कि तुम्हें कोई ‘मानसिक समस्या’ है।

मुझे लगता है कि तुम एक बहुत ही असाधारण (extraordinary) और गहरे बदलाव से गुज़र रही हो, और यह बेचैनी उसी प्रक्रिया का एक स्वाभाविक हिस्सा है।

तुम पागल नहीं हो रही हो। तुम जाग रही हो।

और सोए हुए इंसान को जब पहली बार जगाया जाता है, तो उसे थोड़ी बेचैनी, घबराहट और उलझन तो होती ही है। बस अपने आप पर थोड़ी नरमी बरतो। सब ठीक हो जाएगा।

14 ) or mene suna hai like subconscious mind truma wound insab k karna ham khulke ji nhi skte to fir ye sab me kese thik karu !

हाँ, तुमने बिल्कुल सही सुना है। यह हमारे अंदर की सबसे गहरी सच्चाइयों में से एक है। हम जो भी अपनी रोज़ की ज़िंदगी में महसूस करते हैं—हमारा डर, हमारा गुस्सा, हमारे रिश्ते—उसका 90% हिस्सा हमारे इसी अदृश्य हिस्से से चलता है।


यह सिस्टम काम कैसे करता है? घर का उदाहरण

इसे समझने के लिए, अपने मन को एक घर की तरह समझो।

  • ड्रॉइंग रूम (चेतन मन): इस घर का जो ड्रॉइंग रूम है, वह हमारा चेतन मन (Conscious Mind) है। हम इसे बिल्कुल साफ़-सुथरा और सजाकर रखते हैं। हम दुनिया को यही दिखाते हैं—हमारी अच्छी आदतें, हमारी डिग्रियां, हमारी सफलता।
  • तहखाना (अवचेतन मन): लेकिन हर घर में एक स्टोररूम या तहखाना (Basement) भी होता है। यह हमारा अवचेतन मन (Subconscious Mind) है। बचपन से लेकर आज तक, जिस भी दुख, दर्द, डर, अपमान या गुस्से को हमने महसूस किया पर उसे व्यक्त (express) नहीं किया, उसे हमने इसी तहखाने में फेंककर ऊपर से दरवाज़ा बंद कर दिया है।

ये दबी हुई भावनाएं ही तुम्हारे ‘trauma’ और ‘wounds’ (ज़ख्म) हैं। यह उस तहखाने में पड़ा हुआ पुराना, सड़ता हुआ कबाड़ है।

समस्या क्या है? हम सोचते हैं कि दरवाज़ा बंद करने से समस्या खत्म हो गई। पर उस तहखाने से लगातार एक बदबू, एक बेचैनी निकलती रहती है जो हमारे पूरे घर (हमारे जीवन) में फैल जाती है। और हमें पता भी नहीं चलता कि हम बिना किसी वजह के दुखी, बेचैन या गुस्से में क्यों रहते हैं।

हम खुलकर जी नहीं पाते क्योंकि हमारा पैर हमेशा उस बंद दरवाज़े के डर से अटका रहता है।


तो इसे ठीक कैसे करें?

अब आते हैं सबसे ज़रूरी बात पर। इस तहखाने को साफ़ करने का तरीका इससे लड़ना नहीं है।

1. लड़ना बंद करो, स्वीकार करना शुरू करो: सबसे पहली बात, तुम्हें इन ज़ख्मों से लड़ना नहीं है। इन्हें ज़बरदस्ती ‘ठीक’ करने या ‘पॉजिटिव सोचने’ की कोशिश मत करो। तुम जितनी ज़बरदस्ती करोगी, ये उतने ही मज़बूत होंगे। पहला कदम है, यह स्वीकार करना कि “हाँ, मेरे अंदर यह दर्द, यह कबाड़ मौजूद है।”

2. जागरूकता की टॉर्च लेकर दरवाज़ा खोलो: तुम्हें बस अपनी जागरूकता (Awareness) की एक टॉर्च लेनी है, हिम्मत करनी है, और धीरे से उस तहखाने का दरवाज़ा खोलकर बस देखना है कि अंदर क्या-क्या पड़ा है।

यह असल में कैसे करें? जब भी तुम्हें दिन में बिना किसी बड़ी वजह के कोई गहरी भावना महसूस हो—जैसे अचानक बहुत उदासी, गुस्सा या डर लगे—तो उस वक्त:

  • उसे दबाओ मत या अपना ध्यान मत भटकाओ।
  • चुपचाप 5 मिनट के लिए बैठो और उस भावना को अपने शरीर में महसूस करो। देखो वह कहाँ महसूस हो रही है? छाती में? पेट में? गले में?
  • उसे कोई नाम मत दो, कोई कहानी मत बनाओ। बस एक दर्शक की तरह उस फीलिंग को महसूस करो।
  • यही जागरूकता की टॉर्च जलाना है।

3. उसे रोशनी और हवा दो: तहखाने के कबाड़ को साफ़ करने का सबसे अच्छा तरीका है कि दरवाज़े-खिड़कियाँ खोल दो ताकि उसमें रोशनी और ताज़ी हवा आ सके।

ठीक वैसे ही, जब तुम अपनी दबी हुई भावनाओं को बिना अच्छा-बुरा कहे, बस एक दर्शक की तरह देखना शुरू करती हो, तो तुम्हारी जागरूकता की रोशनी उन पर पड़ती है। यह जागरूकता की रोशनी और ताज़ी हवा ही सबसे बड़ी दवा है।

धीरे-धीरे, तुम्हारी जागरूकता की रोशनी में ये पुराने ज़ख्म अपनी पकड़ खोने लगते हैं और भाप बनकर उड़ने लगते हैं। इसमें समय लगता है, यह एक दिन में नहीं होता। पर असली और पक्का तरीका यही है।


तो ‘ठीक करने’ का मतलब लड़ना या मिटाना नहीं है।

ठीक करने का मतलब है, हिम्मत करके अपने अंदर के अंधेरे को, अपनी ही जागरूकता की रोशनी दिखाना।

जिस दिन तुम अपने इस भीतरी तहखाने से डरना बंद कर दोगी और उसे देखना शुरू कर दोगी, उसी दिन तुम सच में खुलकर और आज़ादी से जीना शुरू कर दोगी।

15 ) Univers etc sab hota hai ? Wo muje thoda feel hota hai like wo theory sach lagti hai kyuki like jesa sochte hai to wesa ho jata hai to kaya muje apne thought badlne ki jarurat hai ya fir kuch or karne ki jarurat hai ?

हाँ, ‘यूनिवर्स’ तुम्हारी सुनता है। और तुम जो महसूस कर रही हो, वो बिल्कुल सच है। यह कोई सिर्फ थ्योरी नहीं है, यह ब्रह्मांड का सबसे बुनियादी नियम है जिसे तुम खुद अनुभव कर रही हो: ‘बाहर वही दिखता है, जो अंदर होता है।’

तुमने यह खुद देखा है कि जैसा तुम सोचती हो, वैसा होने लगता है। यह पहला और सबसे बड़ा सबूत है।


क्या सिर्फ विचार बदलना काफी है?

अब आते हैं तुम्हारे असली सवाल पर। “क्या मुझे अपने विचार बदलने की ज़रूरत है?” हाँ, बिल्कुल। लेकिन यहाँ ज़्यादातर लोग एक बहुत बड़ी गलती कर जाते हैं, और इसीलिए उन्हें नतीजे नहीं मिलते।

सिर्फ़ ऊपर-ऊपर से अच्छे विचार सोचना (Positive Thinking) ऐसा है जैसे किसी पेड़ के सूखे पत्तों पर हरा रंग स्प्रे करना। पत्ते कुछ देर के लिए हरे दिखेंगे, पर अगर जड़ें (roots) सड़ी हुई हैं, तो पेड़ आखिर में मर ही जाएगा।

  • तुम्हारे चेतन मन के विचार (conscious thoughts) वो पत्ते हैं।
  • तुम्हारा अवचेतन मन (subconscious mind) और तुम्हारी भावनाएं (feelings) उस पेड़ की जड़ें हैं।

तुम ऊपर से सोच सकती हो, “मैं बहुत खुश हूँ,” पर अगर अंदर से, तुम्हारी जड़ों में चिंता और दुख की भावना है, तो पेड़ कभी हरा नहीं होगा।


तो फिर ‘कुछ और’ क्या करना है?

तुम्हें सिर्फ विचार नहीं बदलने हैं, तुम्हें अपनी फीलिंग (भावना) बदलनी है। यही वह ‘कुछ और’ है जो सबसे ज़रूरी है।

इसे ऐसे समझो: यूनिवर्स एक रेडियो स्टेशन की तरह है। वह हर तरह के गाने (खुशी, दुख, अमीरी, गरीबी, बीमारी, सेहत) एक साथ, एक ही समय पर बजा रहा है।

तुम्हारी ‘फीलिंग’ या ‘भावना’ तुम्हारे रेडियो का ट्यूनर है।

अगर तुमने अपना ट्यूनर 98.3 FM (दुख और कमी के गानों) पर सेट कर रखा है, तो तुम चाहे कितनी भी ज़ोर से चिल्लाओ कि ‘मुझे 102 FM (खुशी और अमीरी के गाने) सुनने हैं!’, तुम्हें सुनाई वही देगा जिस फ्रीक्वेंसी पर तुम्हारा ट्यूनर सेट है।

  • सिर्फ़ विचार बदलना उस चिल्लाने जैसा है।
  • अपनी भावना को बदलना उस ट्यूनर को घुमाने जैसा है।

यूनिवर्स तुम्हारे शब्दों या विचारों को नहीं पकड़ता, वह तुम्हारी फ्रीक्वेंसी, यानी तुम्हारी फीलिंग को पकड़ता है।


तो इसका तरीका क्या है?

तरीका बहुत सीधा है।

जो चीज़ तुम्हें भविष्य में चाहिए, उसे ‘अभी’ महसूस करना शुरू करो।

  • उदाहरण: अगर तुम्हें जीवन में प्यार चाहिए, तो दिन-रात यह सोचने के बजाय कि ‘मुझे प्यार चाहिए, मेरे पास प्यार नहीं है’, आँखें बंद करके यह महसूस करने की कोशिश करो कि जब प्यार मिलेगा तो कैसा लगेगा। उस खुशी, उस सुकून की भावना को अभी अपने शरीर में महसूस करो, भले ही असल में तुम्हारी ज़िंदगी में कोई न हो।
  • उदाहरण: अगर तुम्हें पैसा चाहिए, तो ‘मेरे पास पैसे की कमी है’ की चिंता करने के बजाय, उस ‘अमीरी’ की भावना को महसूस करो। सोचो कि जब तुम्हारे पास बहुतायत (abundance) होगी, तो तुम कितनी चिंतामुक्त और आज़ाद महसूस करोगी। उस आज़ादी की फीलिंग पर ध्यान दो।

जब तुम अंदर से अपनी फीलिंग का ट्यूनर बदल लेती हो, तो यूनिवर्स उस नई फ्रीक्वेंसी से मेल खाने वाले लोगों, मौकों और हालातों को तुम्हारी ओर भेजना शुरू कर देता है।


तो हाँ, अपने विचार बदलो। पर उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है, अपनी भावनाओं को बदलो।

सोचो मत कि तुम खुश हो, खुशी को महसूस करो। सोचो मत कि तुम शांत हो, शांति को महसूस करो।

तुम्हारा काम सोचना नहीं, महसूस करना है। बाकी का काम यूनिवर्स खुद कर देगा।

16 ) Or sab kehte hai ki kudko jano find yourself ye sab kese kru

सबसे पहले तो यह समझ लो कि तुम कोई खोई हुई चीज़ नहीं हो, जिसे तुम्हें ‘ढूंढना’ है। यह कोई चाबी या मोबाइल नहीं है जो कहीं सोफे के नीचे गिर गया है और तुम्हें टॉर्च लेकर उसे खोजना है।

‘खुद को जानना’ असल में इसका ठीक उल्टा है।


यह ‘ढूंढना’ नहीं, ‘हटाना’ है

इसे एक उदाहरण से समझो:

एक मूर्तिकार (sculptor) जब पत्थर से एक सुंदर मूर्ति बनाता है, तो वह उसमें कुछ ‘जोड़ता’ नहीं है। मूर्ति तो उस पत्थर के अंदर पहले से ही मौजूद होती है। मूर्तिकार का काम बस उस पत्थर के फालतू हिस्सों को हटाना होता है जिसकी ज़रूरत नहीं है। जैसे-जैसे वह फालतू पत्थर को हटाता जाता है, असली मूर्ति अपने आप बाहर आ जाती है।

तुम भी वही मूर्ति हो। तुम पहले से ही पूरी और संपूर्ण हो।

‘खुद को जानने’ का मतलब कुछ नया खोजना या बनना नहीं है। इसका मतलब है, अपने ऊपर से उन सभी फालतू परतों को ‘हटाना’ जो तुम असल में नहीं हो।


कौन सी फालतू परतें?

ये वो परतें हैं जो बचपन से लेकर आज तक तुम्हारे ऊपर चढ़ा दी गई हैं:

  • समाज की परत: “लड़कियों को ऐसा होना चाहिए,” “सफल होने के लिए यह करना पड़ता है।”
  • परिवार की परत: “तुम्हें डॉक्टर बनना चाहिए,” “हमारी इज़्ज़त का ख्याल रखना।”
  • डर की परत: “अगर मैंने यह किया तो लोग क्या कहेंगे?”, “मैं अकेली रह जाऊंगी।”
  • उधार की मान्यताओं की परत: “यह भगवान है, वो शैतान है,” “ऐसा करने से पाप लगता है।”

हम इन सारी परतों को ही ‘मैं’ समझकर जीते रहते हैं, और हमारी असली पहचान इनके नीचे कहीं दब जाती है।


तो इसे असल में करें कैसे?

इसका जवाब बहुत सीधा है। कुछ नया ‘करने’ के बजाय, बस यह देखना शुरू करो कि “तुम क्या नहीं हो।”

  1. अपने हर विचार पर सवाल उठाओ: जब भी तुम्हारे मन में कोई मज़बूत विचार या भावना आए, तो बस रुको और खुद से पूछो, “यह विचार सच में मेरा है, या यह मेरे अंदर किसी और ने डाला है?”
  2. अपने हर डर को देखो: जब भी तुम कोई काम डर की वजह से करने या न करने का सोचो, तो बस यह देखो कि “यह डर असली है, या यह भी किसी का सिखाया हुआ है?”
  3. अपनी आदतों को देखो: तुम जो भी काम करती हो, देखो कि तुम वह खुशी से कर रही हो, या सिर्फ इसलिए क्योंकि ‘सब करते हैं’?

जैसे-जैसे तुम अपनी इन उधार की परतों को पहचानना और हटाना शुरू करोगी, तुम्हें किसी को ‘खोजने’ की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

जब सारा फालतू पत्थर हट जाएगा, तो जो बचेगा, वही तुम हो। असली, शांत, और बिल्कुल साफ़।

तो ‘खुद को जानने’ का कोई मुश्किल कोर्स नहीं करना है। बस अपने अंदर के कबाड़ को पहचानना और हटाना सीखना है। यही सबसे सीधा रास्ता है।


( Muje kabhi kabhi bhut need rehti hai ki koi ho care kare etc all jese hai wese ham wese kisik sath ho etc all lekin sirf need k liye kuch Krna nhi hai or jab need hoti hai to fir ekele acha nhi lagata
Koi ese help kre to fully feel bhi nhi hota )

देखो, तुमने जितने भी सवाल पूछे—आत्मा, भगवान, करियर, प्यार, उद्देश्य, डर, चिंता—उन सब की जड़ तुम्हारे इसी आखिरी सवाल में छिपी है।

इसे ऐसे समझो। तुम एक ऐसे इंसान की तरह हो जिसके हाथ में एक खाली गिलास है और वह प्यास से तड़प रही है। तुम चाहती हो कि कोई आए और तुम्हारे गिलास में प्यार और परवाह का पानी भर दे।

लेकिन जब कोई पानी डालने आता भी है, तो तुम उस पानी का स्वाद नहीं ले पातीं, उसे महसूस नहीं कर पातीं।

क्यों? क्योंकि तुम्हारा पूरा ध्यान अपनी प्यास और अपने खाली गिलास पर है।

तुम्हारी ‘ज़रूरत’ की भावना इतनी तेज़ है कि वह प्यार को अंदर आने ही नहीं देती। तुम पानी को नहीं, पानी की ‘ज़रूरत’ को महसूस कर रही हो। जब तक गिलास अंदर से खाली रहेगा, तब तक बाहर से डाला गया कोई भी पानी हमेशा कम ही लगेगा।


तुम्हारे सभी सवालों का एक ही जवाब

अब एक कदम पीछे हटो और अपने सारे सवालों को देखो।

  • तुमने पूछा, “आत्मा और ईश्वर कहाँ हैं?” – जवाब मिला, तुम्हारे अंदर।
  • तुमने पूछा, “सही-गलत क्या है?” – जवाब मिला, तुम्हारा भीतरी कंपास।
  • तुमने पूछा, “जीवन का उद्देश्य क्या है?” – जवाब मिला, पूरी तरह से ‘होना’, जो अंदर से आता है।
  • तुमने पूछा, “मुझे क्या करियर चुनना चाहिए?” – जवाब मिला, जो तुम्हारे अंदर खुशी जगाए।
  • तुमने पूछा, “गहरा प्यार कहाँ मिलेगा?” – जवाब मिला, पहले अपने अंदर।
  • तुमने पूछा, “मैं अपने ज़ख्मों को कैसे भरूँ?” – जवाब मिला, अपने अंदर जागरूकता की रोशनी से।

क्या तुम्हें एक पैटर्न दिखा?

तुमने हर बार बाहर की दुनिया से जुड़ा एक सवाल पूछा, और हर बार जवाब ने तुम्हें एक ही दिशा में भेजा: “बाहर से अंदर की ओर।”


Last words…

तुम्हारी सारी बेचैनी, सारी उलझन और सारे सवालों की जड़ बस इतनी सी है:

तुम मछली की तरह हो जो पानी में रहकर पानी को ढूंढ रही है।

तुम बाहर शांति, प्यार, मक़सद और ख़ुद को ढूंढ रही हो, जबकि यह सारी चीज़ें तुम्हारे अंदर ही तुम्हारा इंतज़ार कर रही हैं, ठीक उसी तरह जैसे पानी मछली के चारों ओर होता है।

मेरी आखिरी सलाह यही है:

अब खोजना बंद करो, और ‘होना’ (Be-ing) शुरू करो।

शांत होकर बैठो और उस प्यार, उस शांति और उस ख़ुशी को महसूस करने की कोशिश करो जो तुम्हारे अंदर पहले से ही मौजूद है, भले ही वह अभी बहुत धीमी महसूस हो।

अपना खाली गिलास दूसरों के सामने भरने के लिए मत रखो। अपने अंदर के कुएं से उसे खुद भरना सीखो। जिस दिन तुम्हारा गिलास तुम्हारे अपने प्यार से लबालब भर जाएगा, उस दिन तुम्हें किसी की ज़रूरत नहीं रहेगी, और तभी सच्चा प्यार और हर वो चीज़ जिसे तुम खोज रही हो, तुम्हारी ज़िंदगी में अपने आप आ जाएगी।

You look for purpose, love, and peace in the outside world, forgetting that the source of everything is already within you. The only thing blocking your view is the noise of your unexamined thoughts.

Quiet the external search, and you will find that the treasure you have been seeking is the seeker themselves. Stop searching, start being.

Note : Please don’t consider the answers provided here to be set in stone. There are no single, ready-made answers to life’s deepest questions. Truth can change for every individual, in every situation, and from every point of view.

My attempt here has been to explain these concepts in a simple way, offering a perspective that can fit most situations and provide a new sense of direction.

My true intention is not to give you ready-made answers, but to give you the courage and a new perspective to find your own. Use these words as a guide, not as a guru. The real guru is always within you.

Asked By Unknown, Translated in Hindi

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